चुनावी वादे है, वादों का क्या ….आया मौसम नेताओं पर विश्वास का, चुनाव से पहले वादों, फिर विश्वासघात का
मालपुरा – सावन महीने से पहले ही चुनाव का मौसम आ चुका है। जैसे सावन में चरे हुए को हरा ही हरा सूझता है। वैसे ही नेताजी को भी यही लग रहा है कि हमारी हरियाली तो जाने से रही तो फिर चुनावी घोषणाएं करने में क्या जाता है। बेचारी जनता ! नेताजी जिसे जनता ने राजाजी बना दिया है, कैसे राजाजी के वादों पर विश्वास ना करें । राजाजी सोचते हैं कि आज घोषणा कर दो, कल की कल देखेंगे। आखिर है तो चुनावी वादे, वादे है वादों का क्या.. जनता भी आजकल होशियार हो चुकी है, पता नही मिंटो फ्रेस खाने लग गई क्या । मिंटो फ्रेस खाकर जनता ने दिमाग की बत्ती जला ली है। राजाजी कितने ही वादे करे वो वादों पर नही नगद नारायण की ओर देख रही हैं। चुनावी माहौल है कई सेठ आये हैं और कई आएंगे जनता ने ठान लिया एक नगद सौ उधार से काम नही चलने वाला। यहां तो सौ के सौ ही नगद चाहिए। अफसर भी बाबूगिरी को छोड़कर अब नेताजी की राह पर चलने को तैयार है। लेकिन साहब यह आज की जनता है कही बाद में पछताना ना पड़े कि बाबूगिरी ही अच्छी थी। आजकल भामाशाहों का बोलबाला है। कुर्सी की ताकत ने व्यापारियों को भी नेता बनने के लिए मजबूर कर दिया। एक तो व्यापारी और कुर्सी मिल गई तो दोनों हाथों में लड्डू। कलम के सिपहसालार कहे जाने वाले भी अब दुम हिलाते नजर आएंगे। और आए भी क्यों नहीं साहब, सावन तो हर साल आता है मगर चुनावी मौसम तो पांच साल बाद ही आता है… बेचारी जनता भी तो आखिर जनता है,, पांच साल नेताओ की तरह सोती रहती है और चुनावी मौसम में जिंदाबाद करने से फुर्सत ही कहाँ मिलती है, जो विकास के बारे में सोचे …. सच ही है साहब.. आया मौसम नेताओं पर विश्वास का, चुनाव से पहले वादों, फिर विश्वासघात का .. (सम्पादकीय लेख)