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“सावधान! मेरे शहर में आपका स्वागत है”……(मन की बात)

“सावधान! मेरे शहर में आपका स्वागत है”…..(मन की बात)

यदि आप हमारे शहर में आने की सोच रहे हैं, तो कृपया यह लेख दो बार पढ़ लें-एक बार दिल से और एक बार दिमाग से। क्योंकि यह शहर कोई साधारण शहर नहीं, यह एक “बड़ा सोचो, थोड़ा करो” अभियान का जीवंत उदाहरण है। यहाँ की सड़कों पर चलते वक्त अगर आपके पैरों के नीचे ज़मीन बराबर लगे, तो या तो आप सपने में हैं, या फिर गलती से किसी VIP कॉलोनी में भटक गए हैं। बाकी आमजन की सड़कों में इतने गड्ढे हैं कि PWD खुद GPS से रास्ता ढूंढता है। टायर से ज़्यादा झटका आपके दिल को लगता है।

बारिश का मौसम हमारे शहर का विशेष पर्व होता है। बाकी जगहों पर जल भराव ‘समस्या’ कहलाता है, पर हमारे यहाँ यह ‘परंपरा’ है। नालियाँ सिर्फ उद्घाटन वाले दिन चालू होती हैं, उसके बाद मौन व्रत ले लेती हैं। बच्चे स्कूल नहीं, नाव की सवारी करने जाते हैं – वो अलग बात है कि स्कूल की जगह गलती से नाले में न उतर जाएं।

रात होते ही हमारे शहर की गलियाँ ऐसे चमकती हैं जैसे दीपावली आई हो- बस फर्क इतना है कि लाइट पोल है, बल्ब नहीं। जहाँ लाइट जलती है, वहाँ की सड़क नहीं बनी और जहाँ सड़क बनी, वहाँ बिजली गायब। नागरिकों को विकल्पों की आज़ादी है – अंधेरे में गड्ढे से टकराएं या रोशनी में बिल देखकर दिमाग से। अब ज़रा शहरवासियों की बात कर लें ये वे लोग हैं जिनके पास शिकायत करने का पूरा हक है, बस समय नहीं है। हर समस्या का समाधान व्हाट्सएप स्टेटस या व्हाट्सएप चेट और फेसबुक पोस्ट में ढूंढ लिया गया है। कोई पानी की समस्या से जूझ रहा है, तो ‘Feeling thirsty near the tap’ लिखकर समाधान खोज रहा है।

गांधीजी के तीन बंदर हमारे शहर के आधिकारिक प्रतीक बन चुके हैं। न कुछ बुरा देखें, न सुनें, न कहें – और जो कहे, उसे ‘नेगेटिव बंदा’ कहकर साइड कर दें। सबकुछ ‘सब बढ़िया है’ के चश्मे से देखा जाता है। चाहे सड़क टूटे, बिजली जाए, या अस्पताल में डॉक्टर न मिले – बस अगर कोई सेल्फी में स्माइल कर दे तो सब ठीक।

पत्रकारिता अब खबर देने का माध्यम नहीं, उद्घाटन कवर करने की विधा बन चुकी है। रिपोर्टर अब सूचनाएं नहीं देते, वे सम्मान पत्र और मिठाई लेते हैं। उनके कैमरे अब समस्याओं की नहीं, नेताओं की फ़ोटो में फोकस करते हैं। उनका माइक ‘आप क्या कहना चाहेंगे?’ से आगे नहीं बढ़ता, क्योंकि बाकी सवाल पूछने की इजाज़त सिस्टम नहीं देता।

अब अगर बात करें नगरीय निकाय की तो… साहब! ये वो संस्था है जो योजनाएं Google Drive पर बनाती है और जमीन पर भूल जाती है। करोड़ों की आमदनी है – भूखंडों की नीलामी से, लेकिन जनता की नाली अभी भी ‘अभावग्रस्त’ श्रेणी में आती है। अफसर मीटिंग में व्यस्त हैं- विकास उनके एजेंडे में पांचवें पायदान पर आता है। शहर की हर गली में दमराज किलविस का साया है- अंधेरा कायम रहे। कभी-कभी लगता है कि शक्तिमान ने सिर्फ टीवी से नहीं, व्यवस्था से भी इस्तीफा दे दिया है। तो प्यारे मेहमानों, कृपया इस शहर में आने से पहले हेलमेट पहन लें – सिर्फ ट्रैफिक के लिए नहीं, मानसिक झटकों के लिए भी। चप्पल मजबूत होनी चाहिए, क्योंकि गड्ढे भावना से नहीं मिटते। और हाँ, अपने सवालों को घर ही छोड़ आइए, क्योंकि यहाँ जवाब की परंपरा अब किताबों में रह गई है। शहर में आपका स्वागत है लेकिन होशियार रहिए, कहीं विकास की चकाचौंध में आपकी उम्मीदें जल न जाएं। (मन की बात – व्यंग्य लेख)

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