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पालिका पार्षदों की चाल के आगे फीकी पड़ी सबकी चाल?

पालिका पार्षदों की चाल के आगे फीकी पड़ी सबकी चाल?

मनुष्य जीवन में चाल का विशेष महत्व होता है। बहुतों का मानना है कि व्यक्ति की चाल उसके व्यक्तित्व का आइना होती है यानि व्यक्ति के विकास में चाल अहम रोल निभाती है। आम और राजनीति के खास लोगों के लिए चाल का मतलब अलग-अलग होता है। जहाँ चाल आम लोगों के व्यक्तित्व को प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है वहीं राजनीति में चाल नेताओं का अस्तित्व स्थापित करने में निर्णायक भूमिका निभाती है। चाल से आम आदमी को पहचाना जा सकता है लेकिन नेताओं की चाल समझना आमजन के लिए बहुत कठिन है। आम आदमी की चाल से शायद ही किसी को फर्क पड़ता हो लेकिन नेताओं की एक चाल सरकार गिरा भी सकती है और सरकार को बचा भी सकती हैं। आम आदमी को कोई चालबाज कहे तो वह शर्म से आँखें चुराने लगता है लेकिन यही शब्द नेता का सीना चौड़ा कर देता है। लेकिन नगर पालिका के पार्षदों ने तो ऐसी चाल चली की बड़े बड़े नेताओं की चाल भी इनके आगे फीकी पड़ गई। जब से सामुदायिक भवन निर्माण का मुद्दा छाया है तब से पालिका पार्षदों की चाल ही बदल गई। विपक्षी पार्षदों की चाल तो समझ मे आती है लेकिन सत्ताधारी पार्षदों ने तो रंग बदलने में गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया। विपक्ष के साथ मिलकर अपनी ही पार्टी की बगावत करना और वो भी चुनावी दौर के समय। यह चुनावी रण के लिए शुभ संकेत नहीं है।  पालिका में गड़बड़झाला तो चलता ही रहता है लेकिन दुरंगी पार्टी के पार्षद और पार्षद पति जो खुद भी पार्टी की मेहरबानी के चलते पालिका उपाध्यक्ष पद पर आसीन रह चुके है। इनकी चाल ने तो चाल का मतलब ही बदल दिया। अपनी ही पार्टी की चेयरमैन के खिलाफ बगावत की रणभेरी बजाना आमजन को समझ मे नही आया। शहर के विकास को लेकर बड़े बड़े दावे करने वाली तिरंगी पार्टी की पूर्व पालिकाध्यक्ष ने करोड़ो रु विकास के नाम पर खर्च तो कर दिए। लेकिन मोहतरमा का विकास जादू की स्याही की तरह पता नही कहाँ गायब हो गया और आमजन विकास को देखने के लिए टकटकी लगाए बैठे रहे। एक कहावत है कि बिल्ली के भाग्य का छींका टूटना। लेकिन यह बात भी गौर करने योग्य है कि छींका बार बार भी नहीं टूटता। जितनी मलाई खानी थी वो तो खाली। आपकी मलाई के चक्कर मे पालिका का बैंक बैलेंस ही गड़बड़ा गया। और ऐसा गड़बड़ाया की शहर को अंधेरे में डूबना पड़ गया। खैर छोड़ो इस बात को भी आमजनता ही तो है इसे तो अंधेरे में रहने की आदत जो पड़ गई है।
दुरंगी ओर तिरंगी पार्टी के पार्षदों ने मिलकर अब पालिका में पचरंगी पार्टी बना ली है। इस पचरंगी पार्टी में एक साहब काला कोट पहनकर पार्षद प्रतिनिधित्व करते हुए आमतौर पर पालिका क्षेत्र में दिखाई देते रहते हैं। साहब की धर्मपत्नी जो पालिका पार्षद भी है। उनको देखने के लिए तो पालिका भी तरस गई है कि आखिर मेरा जनप्रतिनिधि कहाँ है जिसे जनता ने बड़ी उम्मीद लेकर चुना है। शहर में चर्चा तो जोरो पर है कि दुरंगी पार्टी का पार्षद ही दुरंगी का दुश्मन क्यों बना। लेकिन राजनेता हो या फिर कार्यकर्ता सब खामोश… खामोशी क्यों है यह तो दुरंगी पार्टी वाले ही जाने। लेकिन दुरंगी पार्टी पार्षद की बगावत तिरंगी पार्टी वालों के लिए फायदा का सौदा साबित हो रही है। चलो छोड़ो हमें इससे क्या मतलब? राजनीति है जिसे जैसी चाल अच्छी लगे वो वैसी चले, हमें क्या? चाल हिरणी की हो या गैंडे की चाल चाल होती हैं,, सबको ही अपनी चाल अच्छी लगती है।
(सम्पादकीय व्यंग्य लेख)

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