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“बधाई या भय? – किन्नरों की तालियों से थर्राता समाज”

“बधाई या भय? – किन्नरों की तालियों से थर्राता समाज”

(एक व्यंग्य जो हमें सोचने के लिए मजबूर करें)

कभी किन्नरों की ताली ‘बधाई’ कहलाती थी — आज वही ताली ‘धमकी’ जैसी लगने लगी है। घर में बच्चा हो, शादी हो या गृह प्रवेश। अब लोग सबसे पहले पूछते हैं — “किन्नरों को कौन सम्भालेगा?”
शहरों के हर मोहल्ले में, हर नुक्कड़ पर, “बधाई टोली” अब ‘आतंक टोली’ की तरह देखी जा रही है।
तालियों की आवाज़ अब खुशी की नहीं, जेब ढीली होने की चेतावनी बन चुकी है।
पिछले सप्ताह शर्मा जी के यहाँ विवाह था। शुभ मुहूर्त, शहनाई, घोड़ी पर दूल्हा, और तभी साड़ी में लिपटी, सिंदूर लगाए, मुस्कराती हुई किन्नरों की टोली मंच पर पहुँची।
“बीस हज़ार दो नहीं तो यहीं मंडप में नाचेंगे… और कुछ और भी देंगे।”
शर्मा जी का रंग उड़ गया, और नोटों की गड्डियाँ झूलने लगीं। बेचारे शर्मा जी….किन्नरों की मनमानी के आगे नतमस्तक…
लेकिन सवाल सिर्फ इतना नहीं कि “किन्नर पैसे क्यों मांगते हैं?” सवाल यह है कि हमने उन्हें विकल्प क्या दिया है?
वो किन्नर जो धार्मिक ग्रंथों में पूजनीय रहे, आज भीख माँगने को मजबूर हैं।
धर्म क्या कहता है किन्नरों के बारे में…?
महाभारत में शिखंडी — एक ऐसा पात्र जिसने महायुद्ध के इतिहास की दिशा मोड़ दी। शिखंडी के बिना भीष्म की हार असंभव थी।
धर्म ने उन्हें रणनीतिक योद्धा माना, हमने उन्हें ट्रैफिक सिग्नल पर धकेल दिया।
रामायण में जब भगवान श्रीराम वनवास को जा रहे थे,
तो अयोध्या के लोगों से कहा — “पुरुष-स्त्री लौट जाएं।”
किन्नर नहीं गए क्योंकि वे न पुरुष थे, न स्त्री।
श्रीराम ने लौटकर उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें “बधाई” देने का वरदान दिया।
यानी हमारी संस्कृति में किन्नर शुभता और आशीर्वाद के प्रतीक थे।
जब अर्जुन को उर्वशी का श्राप लगा और वे एक वर्ष तक “बृहन्नला” के रूप में नपुंसक होकर जीवन जीने को मजबूर हुए, तो उन्होंने स्त्री के वेश में रहकर शिक्षा दी, नृत्य सिखाया, और पांडवों की रक्षा की।
हिंदू दर्शन में शिव को अर्धनारीश्वर कहा गया – आधा शिव, आधा शक्ति। यह रूप न सिर्फ लैंगिक संतुलन का प्रतीक है,
बल्कि यह भी दर्शाता है कि पुरुष और स्त्री के परे भी एक पूर्णता है — जिसे हम आज किन्नर कहते हैं।
हमारे भगवान ने जहाँ स्त्री और पुरुष को एक शरीर में आत्मसात किया, वहीं हमारा समाज अब भी किन्नरों को दरवाज़े के बाहर खड़ा रखता है।।आज हम उनके नाम पर दरवाजे बंद करते हैं।
फ्लैट सोसायटी में पोस्टर चिपकाते हैं — “किन्नरों का आना मना है।”
लेकिन हमने क्या किया? उन्हें शिक्षा से दूर, नौकरी से वंचित, समाज से काट दिया। बस हँसी का पात्र बना दिया
और अब जब वे मजबूरी में दरवाज़ा खटखटाते हैं,
तो हम कहते हैं — “आतंक फैला रहे हैं।”
बच्चे के जन्म पर, जन्मदिन पर, विवाह में, सालगिरह में दिखावटी के नाम पर लाखों रु डेकोरेशन और पटाखों में खर्च करना एक फैशन सा बन गया है लेकिन…. किन्नर अगर जीवन यापन के लिए कुछ मांगता है तो वो आंतक का प्रतीक बन गया…
क्या कभी किसी ने ये पूछा — वो आते कहाँ से हैं, और लौटते कहाँ हैं?
कहते हैं कि जब सम्मान नहीं मिलता, तो लोग डर से ही सही, हक माँगना सीख जाते हैं। और जो समाज उन्हें कभी मंदिरों का देवदूत मानता था, आज उन्हें अपराधी मानकर पुलिस बुला रहा है।
कभी राम ने उन्हें आशीर्वाद दिया, आज हम उन्हें गाली देते हैं।
जिसने देवताओं की पूजा में अर्धनारीश्वर तो स्वीकारा,
लेकिन जीवन में किन्नर को जगह नहीं दी। जिसने अर्जुन को ‘बृहन्नला’ बनते देखा, लेकिन आज के बृहन्नला को सम्मान की दृष्टि भी नही…
समाधान न ताला लगाने में है, न ‘किन्नर-टैक्स’ तय करने में।
समाधान है – शिक्षा देना, नौकरी देना, मंच देना और सबसे ज़रूरी — इंसान समझना।
जब एक किन्नर डॉक्टर, टीचर, वकील या नेता बन जाएगा,
तब शायद उन्हें मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। “क्योंकि ‘तालियाँ’ सिर्फ डर की नहीं होतीं,।इन्हीं तालियों से किसी ज़माने में ‘बधाइयाँ’ भी गूँजती थीं।”
आज हम किन्नरों से भाग रहे हैं — क्योंकि हमने उन्हें अपनाया नहीं,
केवल इस्तेमाल किया — कभी आशीर्वाद के नाम पर, तो कभी तमाशे के लिए।
वही किन्नर समाज को भी यह सोचना चाहिए कि – ज्यादा मनमानी या जबर्दस्ती करना उचित नहीं… जो बधाई किसी ने अपनी हैसियत के मुताबिक प्रसन्न होकर दी, उसे बिना किसी ना नुकर के सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए…. आपके मुख से बद्दुआ नहीं बस दुआ ही निकले…
(व्यंग्य के साथ यह लेख समाज के उस सच को उजागर करता है, जिसे हमने जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया है। उद्देश्य किसी समुदाय को हँसी में उड़ाना नहीं, बल्कि एक गंभीर प्रश्न उठाना है।

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