Chief Editor
“रुई के पेच, मलाई के ख्वाब और विकास का स्विमिंग पूल”
लगता है मेरे शहर को किसी की नजर लग गई है… नहीं तो अचानक ये सब क्या हो गया? यहाँ न नेता पहले कभी इतने दुखी दिखे, न अफसर इतने मौन हुए, न जनता इतनी शांत ! और अब देखो… नगर पालिका के पार्षद राजधानी जाकर चिल्ला-चिल्ला कर अपनी पीड़ा सुना रहे हैं। (कहने को जनता के लिए हैं… पर असली दर्द मलाई का है, जो अब शायद थोड़ा फीका लगने लगा है।)
सुनते हैं पहले रुई के पेच को उलझाते-उलझाते इन महानुभावों ने मलाई खूब चाटी। अब जब मलाई थाली से हटकर किसी और के हिस्से चली गई, तो बेचैनी स्वाभाविक है। ऐसे में राजधानी जाकर ‘मलाई मोहभंग आंदोलन’ करना बनता है।
कोई कह रहा है कि करोड़ों कहाँ से आए? भाईसाहब ! जब रुई हो और पेच हो, तो धागा खुद-ब-खुद करोड़ों में बुन जाता है।
पालिका अध्यक्ष और अधिकारी जो पहले एक-दूसरे को देखना भी गवारा नहीं करते थे, अब चाय की प्याली में यारी का रस घोल रहे हैं। घरों में हो या दफ्तर में, अब “दोस्ती जिंदाबाद” की तर्ज पर गप्पें लग रही हैं। क्या अद्भुत मेल है, गजब
याराना है रुई तेरे पेच के बहाने ।
अब बात करें आमजन की…
बेचारी जनता ! वो भी अब व्हाट्सएप स्टेटस और लोकल ग्रुपों में टाइपिंग… से आगे नहीं बढ़ती। न कोई आंदोलन, न कोई सवाल… मानो सबने “मौन ही सत्य है” की दीक्षा ले ली हो।
पार्षदों की भी गजब हालत है कुछ दुरंगी पार्टी के, कुछ तिरंगी, और कुछ तो बिन रंग वाले भी भ्रष्टाचार की पोल खोलने की कतार में खड़े हैं। पर सवाल ये है -पोल खोलोगे तो खुद के हिस्से की मलाई भी दिखेगी ना भैया! क्योंकि जनता अब जान चुकी है कि मलाई सिर्फ एक ने नहीं खाई सबने चट की है। अब बात करें उस बेचारे रुई व्यापारी के वंशज की, जिसने पता नहीं रातों रात कौन सा “अलौकिक” बजट बना डाला कि करोड़ों रुपए एक साथ उड़ेल दिए।
अब पूछताछ हो रही है कि इतना पैसा आया कहाँ से? एसीबी, एसओजी और ईडी को आमंत्रण भेजा जा चुका है “पधारो म्हारे शहर, रुई के पेच में छुपा खजाना तलाशो ।”
पर न्याय की बात तब होगी जब सबका हिसाब होगा चाहे वो पालिका अध्यक्ष हो, अधिकारी हो या मलाई-संस्कार वाले पार्षद ।
सबका विकास, सबका हिसाब यही तो लोकतंत्र की आत्मा है!
वैसे विकास की बात चली तो आपको बता दें शहर का विकास इतना हो चुका है कि सड़कें अब सड़कों जैसी नहीं रहीं,
बल्कि पूरा बाजार अब तैराकी प्रतियोगिताओं के लिए स्विमिंग पूल बन गया है। नालियों में सिर्फ कीचड़ और दुर्गंध बहती है, विद्युत पोलों में बल्ब की बजाय
“यादें” टंगी हैं – और सड़कें ? गड्ढे ढूंढने की ज़रूरत ही नहीं, पूरी सड़क ही गड्डा है। कुल मिलाकर – रुई का पेच ऐसा फंसा है कि शहर की पूरी व्यवस्था उसमें उलझ गई है। अब देखना यह है कि पहले कौन निकलता है मलाई चाटने वाला, या वो जो रुई के नाम पर खुद को लपेटकर जनता को उजाले का सपना दिखा रहा है… या फिर कोई ओर…?
व्यंग्य लेखक की कलम से: “शहर में विकास नहीं हुआ, विकास पर व्यंग्य हुआ है… अब जनता नहीं जागी, तो अगली मलाई की थाली फिर सज चुकी है।”
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