Chief Editor
खतरे में कौन हैं?
(एक तीखा व्यंग्य)
आजकल हमारे शहर में एक नया मौसम चल रहा है-
न बरसात का, न बेरोज़गारी का, न महंगाई का… सीधे खतरे का मौसम ।
सुबह अख़बार खोलो- खतरा। शाम को चाय की चुस्की लो- खतरा। रात को मोबाइल स्क्रॉल करो- खतरा। और सबसे बड़ा, सबसे गंभीर खतरा-“समाज खतरे में है!”
अब सवाल यह नहीं कि खतरा किससे है, सवाल यह है कि इस खतरे को कहाँ फिट किया जाए।
सड़कें टूटी हों-खामोशी। नालियां भरी हों- खामोशी। बिजली गुल हो-खामोशी। लेकिन बुनियादी मुद्दों पर बात करना किसी एजेंडे में शामिल ही नहीं।
ज़रूरी बस इतना है कि खतरा है… और बहुत बड़ा है।
कभी पलायन का खतरा, कभी धर्म पर संकट, कभी संस्कृति पर हमला ।
पर यह खतरा हर बार चुनावी मौसम में ही क्यों जागता है? चुनाव खत्म होते ही यह खतरा किस तहखाने में चला जाता है- यह आज तक रहस्य ही है।
बस चुनाव आते हैं और खतरा भी प्रचार रथ पर सवार हो जाता है।
पलायन हो रहा है- यह सच है। लेकिन कोई रोज़गार के लिए जा रहा है, कोई बच्चों की पढ़ाई के लिए, कोई छोटे घर में बढ़ते परिवार से परेशान होकर, और कोई अपना कारोबार फैलाने के लिए।
पर इन सारी वजहों को एक झटके में रद्द कर दिया जाता है और निष्कर्ष तैयार मिलता है- “धार्मिक पलायन !”
कभी यात्रा के नाम पर, कभी जुलूस के नाम पर, कभी डीजे तो कभी नारे-त्योहार आते ही “जय श्रीराम” और “अल्लाह हू अकबर” चौराहों पर ऐसे गूंजते हैं मानो देश का भविष्य इन्हीं नारों के वॉल्यूम पर टिका हो।
लेकिन नारे लगाने के बाद न नौकरी मिलती है, न स्कूल की फीस भरती है, न रसोई में गैस अपने आप भर जाती है।
कोई कहता है हिन्दू खतरे में है, कोई कहता है मुसलमान खतरे में है।
पर कोई यह नहीं कहता कि- बच्चों का भविष्य खतरे में है, युवाओं का रोज़गार खतरे में है, शांति खतरे में है, और सबसे ज़्यादा भाईचारा खतरे में है।
साम्प्रदायिक आग बड़ी चालाक होती है- पहले दुकान जलाती है, फिर घर, और अंत में सपने। और जब सब कुछ राख हो जाता है, तब वही लोग
मासूमियत से पूछते हैं- “अरे, यह सब कैसे हो गया?”
हकीकत यह है कि आज मज़हब से ज़्यादा महंगाई तेज़ है, नफरत से ज़्यादा संघर्ष ज़िंदा है। और सच यह भी है कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता।
अब समझना होगा –
देश को मज़बूत करने के लिए लोगों को धार्मिक आधार पर कमज़ोर करना बंद करना होगा।
देश नफरत से नहीं, रोज़गार से, शिक्षा से और इंसानियत से आगे बढ़ता है।
तो आइए – खतरे की राजनीति छोड़िए, भविष्य की बात कीजिए।
नफरत नहीं, प्रेम बाँटिए।
क्योंकि
देश सेवा और इंसानियत से बड़ा कोई मज़हब नहीं है।
(सम्पादकीय – व्यंग्य लेख)
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