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“मेरे शहर का हाल-ए-गज़ब”

“मेरे शहर का हाल-ए-गज़ब”

हमारे शहर में सब कुछ है- बिजली है, मगर कभी आती है, कभी जाती है… ठीक वैसे ही जैसे नेताओं के वादे ।

सड़कें भी हैं, लेकिन गूगल मैप भी उन्हें ढूँढने में फेल हो जाता है। गड्ढों ने बाकायदा यूनियन बना रखी है- “गड्ढा विकास समिति” ।

शहर का महाविद्यालय भी कमाल का है- इतना ऐतिहासिक है कि कभी भी गिरकर इतिहास बन सकता है। बच्चे पढ़ाई से ज़्यादा तालाबंदी का रिवीजन कर रहे हैं।

तालाब? अरे साहब, यहाँ के तालाब गंदगी की प्रतियोगिता में ओलंपिक गोल्ड जीत सकते हैं। मछलियाँ डुबकी लगाने से पहले N95 मास्क पहनती हैं।

आधार केंद्रों पर कतारें ऐसी लगती हैं जैसे मुफ्त प्रसाद वितरण हो रहा हो। फर्क बस इतना कि यहाँ “आशीर्वाद” नहीं बल्कि “सर्वर डाउन” मिलता है।

ऐतिहासिक मैदान बेचारा रोज़ आंसू बहाता है, लेकिन प्रशासन सोचता है- “इतिहास का काम ही रोना है।”

और ये धर्म वाले भाईसाहब…

तालाब की गंदगी पर मुँह सिल जाते हैं, लेकिन डांडिया और गणेश महोत्सव पर एक्सपर्ट बन जाते हैं। धर्म की आड़ में राजनीति की रोटियाँ सेंकना इनका फुल टाइम जॉब है। किंतु दशानन अपने उद्धार के लिए आज भी श्रीराम की बाट जो रहा है

विकास… की तो पूछो ही मत…नगर निकाय का पीला पंजा, हाथ में विकास की फाइल लेकर घूम रहा है… गरीबों के रोजगार की जगह सिविल लाइन बन गई है…

जनता?

जनता इतनी चुप है कि अब तो वैज्ञानिक भी यहाँ आकर “मौन साधना रिसर्च सेंटर” खोलने का प्लान बना रहे हैं।

सीनियर सिटीजन ज़रूर एक्टिव हैं, लेकिन बस कागज़ तक। आवेदन-पत्र, ज्ञापन, चिट्ठी… प्रशासन तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे खो जाते हैं जैसे रात में मोबाइल चार्जर।

और युवा ?

पड़ोसी देशों के युवा अधिकारों को लेकर सड़कों पर क्रांति कर रहे हैं, कुर्सियाँ हिला रहे हैं।

हमारे शहर के युवा ? मजहबी नारों में अपना भविष्य तलाश रहे हैं… या फिर इतने गांधीवादी कि क्रांति करने से पहले भी “अनुमति पत्र”

भरेंगे।

“साहब, क्रांति करनी है, दो गवाहों के हस्ताक्षर भी करवा दिए हैं।”

कुल मिलाकर, शहर में सब ठीक है- बस जनता परेशान है, नेता व्यस्त हैं, अधिकारी मौज में हैं, और गड्ढे “स्वच्छ भारत” का मज़ाक उड़ाते हुए हँस रहे हैं।

अंततः … शायर दीपक जैन दीप की यह पंक्तियां…. सभी थे एकता के हक़ में लेकिन, सभी ने अपनी अपनी शर्त रख दी…. (व्यंग्य लेखः लेखक की कलम से….)

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