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“होइहि सोइ जो राम रचि राखा।”… (व्यंग्य लेख)

“होइहि सोइ जो राम रचि राखा।”… (व्यंग्य लेख)

अबकी बार शहर में त्रिलोकीनाथ की यात्रा इस बार ऐसी भव्यता के साथ निकली कि लगता था सड़कों पर गड्ढों के बजाय गुलाब के कोमल पुष्प बिखेर दिए गए हो। पहली बार बिछी लाल-हरी दरी पट्टियाँ गुलाब के फूल के होने का अहसास करा रही थी और लोग इस रंगीन चकाचौंध में इतने खो गए कि पैरों तले दबे गड्ढे भी उन्हें स्वर्गलोक का प्रवेश द्वार लगने लगे।

नगर निकाय की मेहनत भी गजब थी—दो-तीन दिन तक ईंट-मलबे में लोटते-लोटते आखिरकार उन्होंने शहर को ऐसा सजाया कि भक्तों की आँखों पर श्रद्धा की पट्टी चढ़ जाए। हजारों रुपये के गड्ढे ग़ायब नहीं हुए, बस दरी बिछाकर उन्हें “राम भरोसे” छोड़ दिया गया। अब पता नही दरी पालिका ने बिछाई या फिर किसी भक्त ने।

त्रिलोकीनाथ की यात्रा जब दशानन मैदान पहुँची तो वहाँ रावण का पुतला दूर से ही देखकर लगता था मानो श्रद्धालुओं से गुहार कर रहा हो – “भाइयो, इस बार श्रीराम को प्रशासन से मत बुलाना। बरसों हो गए, असली दशरथनंदन के दर्शन किए। हर बार कोई अधिकारी तीर-कमान लेकर मुझे जला देता है। मैं भी थक गया हूँ भाई, मेरा उद्धार कोई भक्त करेगा या विवादों में ही अटका रहेगा?” (ईश्वर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल भी देता है)
वही तालाब का दृश्य भी अद्भुत था—नवनिर्मित नाले का पानी बड़े वेग से ऐतिहासिक तालाब में उछलकूद कर रहा था। श्रद्धालु इसे भी भगवान की लीला समझकर अनदेखा कर गए। गंदगी भी इस दिन इतनी पवित्र हो गई कि कोई उसकी बदबू तक सूंघना नहीं चाहता था।

कोई और दिन होता तो यही पानी लोगों को कोसने पर मजबूर करता, लेकिन इस पवित्र दिवस पर सबने इसे गंगाजल मान लिया। भक्तों की आँखें बंद, नाक बंद—और श्रद्धा खुली।

आरती, स्नान और जलविहार के बाद भक्त अपनी आँखों में श्रद्धा की चमक और थैलियों में तालाब का पवित्र जल लेकर लौटे। माताएँ अपने अपने बाल गोपालजी को स्नान कराती रहीं। और बाकी जो बाल गोपालजी को साथ ला ना सकी वो थैलियो में तालाब के पानी को गंगोत्री का जल समझ भरकर ले गई।

इस बीच, नारदमुनि संतानों की वाणी गूंजती रही –
“नारायण… नारायण… भक्ति अलग बात है, पर गंदगी में स्नान और जलविहार शास्त्रसम्मत कहाँ है?”
पर अफसोस, यह वाणी श्रद्धालुओं के कानों तक भी नहीं पहुँची और निकाय के दिल तक भी नहीं।

इधर निकाय के अधिकारी चैन की सांस लेते रहे—“चलो भाई, एक और त्योहार निकला, अब कुछ दिन आराम।

अब इन्हीं श्रद्धालुओं में से कुछ गौरीपुत्र के विसर्जन पर सवाल उठा रहे हैं –
“गंदे नालों से युक्त सड़े तालाब में विसर्जन करना क्या शास्त्रसम्मत है?” कोई शास्त्रों का हवाला देता है विसर्जन का शास्त्रों में विधान नही तो कोई आस्था का….

कोई आपसी एकता का तो कोई तिलक जी का…

कोई कहता है नही नही यह गलत है… कोई कहता है नही नही यह सही है…(क्या गलत क्या सही…मालूम नही)
जवाब कोई नहीं देता।

भक्त कहते हैं – “हम विसर्जन करने को तैयार है।”
बाकी सब सोचते हैं – “राम की लीला है, सब मंगल ही मंगल है।”

लेकिन सच्चाई यही है कि भव्य दरीपट्टियाँ गड्ढों पर नहीं, निकाय की नाकामी पर बिछाई गई थीं। श्रद्धा इतनी भारी पड़ी कि जनता ने सब अनदेखा कर दिया।

तुलसीदासजी ने तो सदियों पहले ही कह दिया था –
“होइहि सोइ जो राम रचि राखा।”
पर नगर निकाय वाले शायद इसे ऐसे पढ़ते हैं –
“होइहि सोइ जो निकाय रचि राखा।”

नोट : यह केवल व्यंग्य है… व्यंग्य के माध्यम से लेखक ने केवल कटाक्ष किया है…. किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना लेखक का मकसद नही है…. आप अन्यथा ना ले….

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