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“पटरी रहित समझौता एक्सप्रेस”

“पटरी रहित समझौता एक्सप्रेस”

मालजी की नगरी में चमत्कार होना अब कोई खबर नहीं रहा, बस चमत्कार का ठेका किसके पास है, यही असली खबर है।

कभी यहां चुंगी नाका पर पत्रकार पाठशाला चलती थी- जहां कलम की नोक पर खबरें नाचती थीं और दिग्गज पत्रकारों का आना-जाना ऐसा था जैसे रेलवे स्टेशन पर गाड़ियां ।

फिर एक दिन नगर पालिका प्रशासन ने “जेसीबी महोत्सव” मनाया और पाठशाला की जगह पीपली चौराहा बना डाला।

नामकरण का श्रेय शहर के दबंग अधिकारी जी को जाता है, जिन्होंने वहां पीपल का पौधा लगाकर “पर्यावरण संरक्षण” का संदेश दिया। (बाद में ये भी पता चला कि पौधा असल में “भविष्य की अड़चन” के रूप में लगाया गया था)।

अब अदालत ने पीपली चौराहे पर सवाल खड़े कर दिए हैं- तो शहर में चर्चा गर्म है: क्या फिर से पत्रकार पाठशाला लौटेगी?

पाठशाला के निडर हेड पत्रकार, जो पाठशाला के अस्तित्व के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी से कानूनी जंग लड़ रहे थे। जिनका ध्येयः वाक्य था “सच के लिए जियूंगा, सच के लिए मरूंगा” मगर ईस्ट इंडिया कम्पनी के धनबल के सामने सब धराशायी…

लोग अब एक दूसरे से यही कहते नजर आते हैं –

“भाई, ये मामला तो समझौता एक्सप्रेस जैसा है… बस पटरी छोड़, बाकी सब सेट है।”

जी हां, समझौता हो चुका है, और समझौता एक्सप्रेस पटरी के बिना ही 420 की रफ्तार से दौड़ रही है। स्टेशन भी बनेगा- पूरे 30 लाख की लागत से, और लोकेशन ? वही पीपली चौराहा। लेकिन यहां वन विभाग ने हरी झंडी दिखाने से पहले ही लाल झंडी लहरा दी- “हरे पेड़ को हाथ लगाया तो आपका नाम कानूनी कागज में छप सकता है।”

अब सवाल ये कि पीपल को काटे बिना स्टेशन कैसे बने, और बिना स्टेशन के एक्सप्रेस कहां रुके?

इस बीच, समझौता एक्सप्रेस के “चीफ टिकट इंस्पेक्टर” माने जाने वाले पत्रकार जी अब अंडरग्राउंड मोड में हैं। कभी किसी को समझाते हैं- “भाई, ये सब अफवाह है”, तो कभी किसी को चेतावनी देते हैं- “तुम्हें पूरा सच पता नहीं।”

लेकिन जनता को तो मालूम है, झूठ के पैर नहीं होते, बस कभी-कभी झूठ के पहिये होते हैं, जो सीधे समझौता एक्सप्रेस में फिट हो जाते हैं।

और मालजी की नगरी में गाड़ी चलाने के लिए पटरी हो या न हो-बस स्टेशन पर चाय-पकोड़ी की दुकान खुल जाए, तो समझौता हमेशा सफल रहता है। (व्यंग्य लेख – लेखक की कलम से)

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