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“रामराज्य 2.0: गड्ढों में विकास, अफसरों में अहंकार”

“रामराज्य 2.0: गड्ढों में विकास, अफसरों में अहंकार”

रामराज्य की रील, रियल में गड्ढों का खेल!

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कभी सुना था कि रामराज्य में जनता सुखी होती है, राजा न्यायप्रिय और सेवक स्वाभिमानी। लेकिन आज जो रामराज्य चल रहा है, उसमें अफसर ही राजा हैं, नेता “नजरबंद महापुरुष” हैं, और पत्रकार अगर सवाल पूछ दे, तो रासुका लगाने की भावना जागृत हो जाती है।

हमारे शहर में लोकतंत्र नहीं, लोक-तमाशा चलता है।

यहां सड़कों पर गड्ढों ने बाकायदा अतिक्रमण प्रमाण पत्र बनवा लिए हैं। कोई न हटाए, कोई न बोले — उनका “विकास” स्थायी है।
कभी-कभी अधिकारी जी खुद इन गड्ढों का “मुआयना” करने निकलते हैं। हेलमेट, जूते, चमकते हुए कपड़े और पीछे-पीछे चमचों की कतार—सही मायनों में ‘विकास यात्रा’ का सजीव उदाहरण। एक हाथ में नोटबुक, दूसरे में कीमती मोबाइल—और तीसरे में? ओह, माफ कीजिए! अफसरों के पास तो तीसरा हाथ फोटो खिंचवाने के लिए होता है।

निरीक्षण के बाद होता है महानतम पेचवर्क—जिसमें गड्ढे पर थोड़ा मलबा डालकर उसे ढंका नहीं, बहलाया जाता है।
अगले दिन अखबार में हेडलाइन होती है:

“पालिका प्रशासन एक्शन में – शहर में सड़कों के पेचवर्क का कार्य जोरों पर!”

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सच्चाई ये है कि जोरो पर तो सिर्फ खबर का एंगल था।

अब बात करें नेता जी की…
अजी, वो इस कदर मौन हैं कि कई बार संदेह होता है –
“वो चुप हैं, या हमारी समस्याओं के साथ मौन उपवास पर?”
विकास के नाम पर तो उन्होंने जनता से बातचीत तक आउटसोर्स कर दी है—”जो कुछ कहना हो, अफसर से कहिए।”
अफसर भी फिर “ताकत” के नशे में पत्रकारों को उठाकर कहते हैं:

अकेले में मिलो ज़रा, बताता हूँ तमीज क्या होती है!”
यानी पत्रकारिता अब प्रश्न नहीं पूछती, सम्मानजनक चुप्पी में रहती है।

अगर कोई पत्रकार गलती से सवाल पूछ ले, तो अधिकारियों की “शांति” भंग हो जाती है। फिर FIR, फिर धारा 151, फिर शांति भंग की पूरी स्क्रिप्ट।
अब ये अलग बात है कि सड़कों की हालत देख जनता की कमर भंग हो रही है—पर चिंता मत कीजिए, अफसरों की शांति अब भी अक्षुण्ण है।

फिर भी एक दो नारदमुनि की संतानें अपनी हरकतों से बाज नहीं आते, कलम की नोक को निरन्तर।नुकीली बनाए हुए हैं।

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और विकास?
विकास अब “एयरड्रॉप” में आता है। मोबाइल में योजनाएं पूरी हैं, लेकिन ज़मीन पर केवल पीला पंजा दिखाई देता है—जो गरीब की झोपड़ी गिराता है, उसकी रोज़ी उड़ाता है, और फिर वहीं खड़े होकर कहता है,

“विकास हुआ है, बस तुम्हें दिख नहीं रहा।”
दिखेगा भी कैसे? यहां तो विकास की हड्डियाँ भी गड्ढों में दबी हैं।

लेकिन एक बात है,
तेजाजी महाराज की कृपा से अब तक सब बचे हुए हैं। वरना इतनी बददुआओं के बाद अफसरों की कुर्सियाँ खुद-ब-खुद कांपनी शुरू कर देतीं।
शहर में हर दिशा से विष फेंकते नाग निकले हैं—लेकिन तेजाजी की लाठी अब तक हमें बचा रही है।
वरना लोकतंत्र का अंतिम संस्कार तो कब का लिखा जा चुका है, बस श्मशान में जगह खाली नहीं थी।

निष्कर्ष:

जब अफसरशाही पत्रकार से सवाल करने पर नाराज़ हो, नेता केवल चुनाव में दिखें, और पालिका सड़क पर सिर्फ फोटो के लिए जाए…
तो जनता को चाहिए कि वो गड्ढे में गिरने के बाद चिल्लाए नहीं,
बल्कि कहे—”जय हो विकास महाराज की!”

और हाथ जोड़कर अगला गड्ढा आने तक
तेजाजी महाराज की जयकारा लगाते रहें….(व्यंग्य लेख : लेखक की कलम से)

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